इतिहास

माहेश्वरी जाति का यह वृहत्‌ संगठन है। इसकी शाखाएं न केवल भारत भर में फैली हैं, अपितु नेपाल, बांगलादेश , ऑस्ट्रेलिया तथा अमेरिका में भी है। माहेश्वरी समाज के साथ-साथ अन्य समाज की उन्नति करना, यह इस संगठन का उद्देश्यय रहा है। यह संगठन समाज में समयानुकूल परिवर्तन का प्रयास करते हुए .... माहेश्वरी समाज राष्ट्र का प्रगतिशील अंग कैसा बनेगा इसकी ओर विशेष ध्यान देने की कोशीश करता आया है।

सन्‌ 1891 में अजमेर में स्व. श्री लोईवाल जी, किशनगढ़ के दीवान की अध्यक्षता में समाज संगठन की नींव रखी गई तथा माहेश्वरी महत्‌ सभा की स्थापना हुई। हम सबके लिए यह गर्व की बात है कि माहेश्वरी समाज का यह संगठन सर्वप्रथम जातीय संगठन था। इस सभी के उद्देद्गय के प्रचार के लिए ''महेश्वरी '' नामक पत्र निकाला गया। जिसकी प्रतियां देश भर में सभी माहेश्वरी सज्जनों को भेजी गई। मासिक रूप में ''महेश्वरी '' का प्रकाशन अजमेर से प्रारम्भ हुआ।

आगे सन्‌ 1892 में आगरा में ''महेश्वरी '' का प्रकाशन शुरू हुआ। लेकिन फिर यह प्रकाशन बंद हुआ और बाद में हापुड से इसका प्रकाशन शुरू हुआ। इस माहेश्वरी महत्‌ सभा का द्वितीय अधिवेशन किशनगढ में तथा तृतीय अधिवेशन अजमेर में करने का निश्चय किया गया।

1894 में माहेश्वरी महत्‌ सभा द्वारा नियुक्त उपसभा के प्रयासों से सहारनपुर में श्रीनथमल जी मेहता (दीवान, जैसलमेर) की अध्यक्षता में प्रथम माहेश्वरी कॉन्फ्रेन्स हुई जिसमें 16 प्रस्ताव स्वीकृत हुए। उनमें निम्न प्रस्ताव प्रमुख थे :-
1. पंजाबी, मारवाड़ी, जैसलमेरी, ढुढाढि, जयपुरी, बीकानेरी आदि सभी माहेश्वरी बंधुओं से आपस में प्रेम और विवाह सम्बन्ध करने का अनुरोध किया गया।
2. विवाह तथा मृत्यु आदि अवसरों पर मर्यादा से ज्यादा खर्च करने पर निषेध किया गया।
3. कन्या के बदले में धन लेना निषेध माना गया।
4. गरीब माहेश्वरी भाईयों की सहायता करने का विचार किया गया।
5. अनाथ माहेश्वरियों की रक्षा के लिए अनाथालय, शिक्षा के लिए पाठशालाएं स्थापित करना तथा विधवा एवं अपाहिजों की सहायता करने की अपील की।
6. बाल विवाह को निषेध किया गया तथा विवाह के समय लडकी की आयु 14 तथा लडके की आयु 18 वर्ष से कम न हो ऐसा प्रस्ताव पारित किया गया। देश में माहेश्वरी समाज ही सबसे पहला समाज है जिसने बाल-विवाह को निषेध किया और ऐसा ही केन्द्रीय असेम्बली में दीवान बहादुर हरिविलास जी शारदा (अजमेर) द्वारा रखा गया जो ''शारदा एक्ट'' नाम से विखयात है। यह एक्ट 1930 में पास हुआ। अर्थात्‌ कानून बनने के पहले ''माहेश्वरी महत्‌ सभा'' समाज में इसका प्रचार कर चुकी थी।

1895 में द्वितीय माहेश्वरी कॉन्फ्रेन्स मथुरा में आयोजित की गई। इसमें कन्या विक्रय की निंदा, बाल-विवाह का निषेध, वृद्ध विवाह की निंदा, ओसर-मोसर करने का निषेध एवं अन्य सामाजिक कुरीतियों का निषेध किया गया। 1896 में तृतीय माहेश्वरी कॉन्फ्रेन्स अजमेर में वैश्य महासभा के साथ आयोजित की गई इसका निमंत्रण देशभर में माहेश्वरी सज्जनों के पास भेजा गया था। 1898में दिल्ली में चतुर्थ अधिवेशन वैश्य महासभा के साथ सम्पन्न हुआ। 1900 में अलीगढ़ में पंचम अधिवेशन सम्पन्न हुआ। इसके बाद इस महत्‌ सभा का कार्य बंद हो गया। दस वर्ष की अवधि में इस सभा ने माहेश्वरी समाज में सामाजिक जागृति का ठोस एवं महत्वपूर्ण कार्य किया।

1908 में माहेश्वरी महासभा का प्रादुर्भाव हुआ और पहला अधिवेशन अमरावती में सम्पन्न हुआ। जिसमें राजा गोकुलदास जी मालपाणी अध्यक्ष तथा श्री श्रीकृष्णदास जी जाजू प्रधानमंत्री चुने गए। इस अधिवेशन में 7- 8हजार समाज बंधु पधारे थे।

इस अधिवेशन में मुखयतः निम्न प्रस्ताव पारित हुए :-

अकारण सगाई न तोडी जाए, पच्चीस वर्ष से कम आयु वाले व्यक्ति की मृत्यु होने पर मोसर न किया जाए, विवाह में वधु की आयु वर से 4 वर्ष कम होनी चाहिए, कन्या विक्रय पर बंधन, 45 वर्ष की आयु के बाद विवाह न किया जाय, विवाह से पूर्व जनेऊ धारण कर लेना चाहिए।

1912 में दूसरा अधिवेद्गान नागपुर में श्री सेठ फतेहचन्द्र जी सावणा (राठी) की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। श्री श्रीकृष्णदास जी जाजू प्रधानमंत्री थे। इस अधिवेशन में करीब 2000 हजार से ज्यादा समाज बंधु पधारे थे। इसमें 'यज्ञोपवीत संस्कार' यथा समय पर करने का अनुरोध तथा बालक-बालिकाओं को शिक्षा देने पर जोर दिया गया। ओसर सम्बन्धी नियम राज्यभर में सामाजिक रूप से जारी करने सम्बन्धी जोधपुर महाराज से प्रार्थना की गई। इस अधिवेद्गान में 50 हजार रू. का शिक्षा कोष स्थापित हुआ।

1913 में अलीगढ़ में श्री भागीरथदास जी भूतडा के प्रयत्नों से 'श्री जैसलमेरी माहेश्वरी महासभा' स्थापित हुई तथा इसके प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता श्री गिरीधरलाल जी केला ने की। इसमें उपरोक्त मिलते जुलते छः प्रस्ताव स्वीकृत हुए।

1914 में 'श्री जैसलमेरी माहेश्वरी महासभा' का दूसरा अधिवेशन मथुरा में श्री गिरिधरलाल जी केला की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। जिसमें श्री जैसलमेरी माहेश्वरी महासभा का नाम बदलकर 'माहेश्वरी सभा' कर दिया गया। इस माहेश्वरी सभा के कुल 6 अधिवेशन हुए। तीसरा मेरठ में, चौथा देहली में श्री रा.ब.श्यामसुन्दर जी लोईवाल की अध्यक्षता में हुआ। जिसमें पहला प्रस्ताव नाम परिवर्तन के बारे में था। इस प्रस्ताव में माहेद्गवरी सभा का नाम श्री माहेश्वरी महासभा किया गया (जो शुरू जैसलमेरी माहेश्वरी महासभा था) जिसमें इतिहास लिखने सम्बन्धी, विवाह में दो गोत्र टालने सम्बन्धी, नव-युवकों को कला कौशल की शिक्षा देने, विदेश भेजने एवं उनकी सहायता करने सम्बन्धी प्रस्ताव पारित हुए। पांचवा अधिवेशन 1916 में कलकता में श्री रा.ब.श्यामसुन्दर जी लोईवाल की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। जिसमें करीब 7 प्रस्ताव पारित हुए, जिसमें वैश्यानृत्य, अद्गलील गायन, आतिशबाजी, फिजूल खर्ची बंद करने सम्बन्धी तथा हिन्दी भाषा अपनाने सम्बन्धी प्रस्ताव तथा वेशभूषा सुधारने का अनुरोध किया गया।

1917 में पाली में श्री किरोडीमल जी मालू की अध्यक्षता में माहेश्वरी महासभा का तृतीय अधिवेद्गान हुआ। श्री शिववल्लभ जी मानधन्या प्रधानमंत्री थे। इस अधिवेशन में तेरह प्रस्ताव पारित हुए। जिसमें मुखयतः यथा समय यज्ञोपवीत संस्कार करने, शिक्षा प्रचारार्थ संस्थाएं खोलने के सम्बन्ध में तथा बाल, वृद्ध बेजोड विवाह, कन्या विक्रय, फिजूल खर्ची आदि का निषेध किया गया। महासभा की कार्यकारिणी समिति का चुनाव किया गया तथा कार्यकारिणी का नाम 'माहेश्वरी मंडल' रखा गया।

1920 में श्री माहेश्वरी महासभा (जैसलमेरी) का छठा अधिवेशन अलवर में हुआ। उसमें दोनों महासभाओं को सम्मिलित करने का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। इस सम्मिलिकरण के लिए श्री रा.ब.श्यामसुन्दर लोईवाल तथा तपोधन श्री श्रीकृष्णदास जी जाजू ने प्रयास किए।

सन्‌ 1921 में माहेश्वरी महासभा का चौथा अधिवेशन आकोला में श्री.ब.श्री बल्लभदास जी मालपाणी (जबलपुर) की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। जिसके स्वागत मंत्री ब्रजलाल जी बियाणी थे। अधिवेशन में करीब 2000 समाज बंधु पधारे थे। इस अधिवेशन में महासभा के उद्देश्य और नियम निर्धारित किये गये। छात्रवृति देने का उपक्रम इसी अधिवेशन से शुरू हुआ।

सन्‌ 1922 में कलकत्ता में दोनों सभाओं का संयुक्त अधिवेशन सम्पन्न हुआ। जिसका निमंत्रण आकोला के अधिवेशन में ही मिला था। श्री कृष्णदास जी जाजू ने अध्यक्ष पद का भार ग्रहण किया। श्री रामकृष्ण जी मोहता तथा श्री गोविन्ददास जी मालपाणी मंत्री थे। इस अधिवेशन में इस संस्था का नाम 'अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा' किया गया। इस अधिवेशन में श्री जाजू जी ने स्वदेशी तथा राष्ट्रीय आन्दोलन का समर्थन किया। अधिवेशन में 23 प्रस्ताव स्वीकृत हुए जिसमे पूर्व अधिवेशनों के अनेके प्रस्ताव दोहराये गये थे।

सन्‌ 1923 में छठा अधिवेशन इंदौर में सम्पन्न हुआ। श्रीमान्‌ रामकृष्णजी मोहता ने अध्यक्ष पद ग्रहण किया। श्री गोविन्ददास जी मालपाणी एवं श्री बृजवल्लभदास जी मूंदड़ा मंत्री तथा उपमंत्री चुने गये। कलकत्ता अधिवेशन की तरह इन्दौर अधिवेशन में भी महासभा ने स्वदेशी अपनाने का अनुरोध किया। इस अधिवेशन में करीब २० प्रस्ताव पारित हुए। इन प्रस्तावों में प्रायः पूर्व प्रस्ताव दोहराये गये थे। महासभा द्वारा महासभा अधिवेशन कोष के लिए 20000/- रू. स्थायी रखने का निश्चय किया गया। महासभा समयोचित सुधार की पुकार उठाने वाली संस्था थी, इसलिए प्राचीन पंथी लोगों के साथ टकराव की स्थिति उत्पन्न हुई। यह संघर्ष 'कोलवार प्रकरण' के रूप में सन्मुख आया।

सन्‌ 1924 में बम्बई में सातवां अधिवेशन सेठ गोविन्ददास जी मालपाणी, जबलपुर की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। श्री रामकृष्ण जी मोहता तथा श्री आईदान जी मोहता मंत्री तथा उपमंत्री थे। इस अधिवेशन में कोलवार प्रकरण के कारण संघर्ष हुआ। इस कारण वातावरण बहुत क्षुब्द था, फिर भी अनेक प्रस्ताव पारित हुए। श्री घनश्यामदास जी बिड़ला ने सुझाव दिया कि माहेश्वरी बालकों के लिये छात्रवृतियां रखी जाये।
इस दरम्यान भारत में पंचायतों के द्वारा महासभा से विरोध का वातावरण बनाने का प्रयत्न हुआ। कोलवार माहेश्वरियों के सम्बन्ध में पुनः जांच करने हेतु द्वितीय कोलवार कमीशन नियुक्त किया गया, जिसमें 15 सदस्य थे। इनकी रिपोर्ट के अनुसार कोलवार माहेश्वरी शुद्ध माहेश्वरी है तथा उनसे विवाह सम्बन्ध करने में बांधा नहीं है। यह प्रस्ताव कार्यकारी मण्डल में १६ अप्रेल 1924 को स्वीकृत किया गया।

सन्‌ 1927 में आठवां अधिवेशन पंढ रपुर में श्री रामगोपाल जी मोहता की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। श्री रामकृष्ण जी मोहता एवं श्री ब्रजलाल जी बियाणी महामंत्री थे। कोलवार प्रकारण के कारण कलकत्ता पंचायत के प्रस्ताव में बहिष्कार नीति अपनाने सम्बन्धी अतिरेक हुआ था। इस अधिवेशन में सामाजिक बहिष्कार प्रथा के निषेध का ऐतिहासिक निर्णय लिया गया, इस अधिवेशन में प्रथम बार माहेश्वरी महिला परिषद की स्थापना हुई।

सन्‌ 1929 में नौवा अधिवेशन धामनगांव में रावसाहेब श्री रूपचंदजी लाठी जलगांव की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। श्री राजवल्लभ जी लढा तथा श्री नन्दकिशोर जी गोदानी महामंत्री व सहमंत्री थे। इस अधिवेशन में पहली बार बडी संखया में महिलाओं की उपस्थिति थी। इस अधिवेशन में पर्दा प्रथा के बहिष्कार की घोषणा की गई। श्री घनश्यामदास जी बिडला ने 51000/- रू. की राशी माहेश्वरी विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने हेतु प्रदान की।

सन 1931 में दसवां अधिवेशन देवलगांव (राजा) में विदर्भ केसरी श्री ब्रजलालजी बियाणी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। श्री नन्दकिशोर जी गोदानी एवं ब्रजबल्लभदास जी मूंदड़ा मंत्री बने। इसके बाद महासभा के सूत्र श्री बियाणी जी जैसे प्रतिभा सम्पन्न नेता के हाथ में रहें। इस अधिवेशन में पहली बार विधवा-विवाह के सम्बन्ध में प्रस्ताव प्रस्तुत किये गये। जिसमें कहां गया कि बाल विधवाओं की संखया ज्यादा हो रही है, यदि उनकी इच्छा हो तो उनके विवाह का समाज विरोध ना करे। इसी अधिवेशन में माहेश्वरी पत्र का भार उदीयमान युवक श्री रामगोपाल जी माहेश्वरी के हाथों में दिया गया एवं प्रकाशन कार्य नागपुर में आरम्भ किया गया।

सन्‌ 1934 में ग्यारहवां अधिवेशन अजमेर में श्री गोविन्ददास जी मालपाणी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। श्री वृन्दावनदास जी बजाज मंत्री थे, कोलवार प्रकरण लेकर बम्बई अधिवेशन में उत्पन्न हुआ और पंढनपुर, धामनगांव तथा देवलगांव अधिवेशनों तक चला, संघर्ष इस समय शान्त हो चुका था। इस अधिवेशन में अनेक राजनीतिक एवं सामाजिक प्रस्ताव पारित हुए। महात्मा गांधी के हरिजन आन्दोलन के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गई। स्त्रियों की घूंघट प्रथा उनकी उन्नति में बाधक एवं शारीरिक हृस का कारण बताते हुए शीघ्र हटाने का अनुरोध किया गया। इस अधिवेशन में महासभा की नियमावली में संशोधन किया गया। उसमें भविष्य में एक ही प्रधानमंत्री चुना जाये, ऐसा तय हुआ।

सन्‌ 1937में बारहवां अधिवेशन कानपुर में सम्पन्न हुआ। श्री बृजबल्लभदास जी मूंदडा (कलकत्ता) ने अध्यक्ष पद ग्रहण किया। श्री बालकृष्ण जी मोहता मंत्री रहे।

सन्‌ 1940 में सूरत में तेरहवां अधिवेशन सम्पन्न हुआ। जिसका निमंत्रण कानपुर में ही दिया गया था। इस अधिवेशन में अध्यक्ष का स्थान श्री रामकृष्ण जी धूत (हैदराबाद) ने सम्भाला था तथा श्री राधाकृष्ण जी लाहोटी (बम्बई) मंत्री थे। इस अधिवेशन में विधवा विवाह के समर्थन में प्रस्ताव पारित हुआ।

सन्‌ 1946 में महासभा का चौदहवां अधिवेशन स्वर्णजयंती के रूप में ग्वालियर में श्री गुलाबचन्द जी नागौरी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। श्री राधाकृष्ण जी लाहोटी मंत्री थे। इस अधिवेशन में प्रथम बार समाज में बढ़ रही दहेज प्रथा का विरोध किया गया।
घ् ग्वालियर अधिवेद्गान के पद्गचात महासभा के कार्य में कुछ शिथिलता आयी। संगठन निष्क्रिय हुआ। ग्वालियर अधिवेशन में आगामी अधिवेशन के लिए जयपुर का निमंत्रण आया था, किन्तु परिस्थिति अनुकूल न होने से अधिवेशन नहीं हुआ।